- जगन का मतलब जग
- नाथ का मतलब स्वामी
जगन्नाथ मंदिर जगत के नाथ भगवान श्री कृष्ण [जिन्हें जगन्नाथ के नाम से भी जाना जाता है] को समर्पित है। और भगवान जगन्नाथ की नगरी को ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहते हैं। यह मंदिर हिंदुयों के चार धाम में से एक है। भगवान जगन्नाथ यहां अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान हैं।
भगवान जगन्नाथ की मूर्ति लकड़ी की क्यों बनी है ? (Jagannath temple history in hindi)
इस बारे में अलग-अलग कथा प्रचलित हैं और हम आपको वो दो कारण या कथा बताएंगे जिनमें एक का अनुमोदन ज्यादातर लोग करते हैं, पहली कथा वही है -
पहली कथा :- पहले जगन्नाथ नील माधव के नाम से भी जाने जाते थे। हज़ारों वर्ष पूर्व नील पर्वत की एक गुफा में भील सरदार विष्वासु जी नील माधव (या माघव) जी की पूजा करते थे और भीलों में उस वक़्त लकड़ी की मूर्ति बनाने का चलन था इसलिए भगवान जगन्नाथ की मूर्ति लकड़ी की है।
दूसरी कथा :- एक अन्य कथा के अनुसार जब पांडवों ने भगवान श्री कृष्ण का अंतिम संस्कार कर दिया तो शरीर ब्रह्मलीन होने के पश्चात भी उनका हृदय जलता रहा तो हृदय को जल में प्रवाहित कर दिया गया। फिर वह हृदय ओड़िसा के समुद्र तट पर पहुंच गया और लट्ठा बन गया। भगवान ने राजा इंद्रधुम्न को सपने में बताया वह समुद्र तट पर लकड़ी के लट्ठे के रूप में हैं, फिर उसी लकड़ी से उनकी मूर्ति बनी।
मंदिर उद्गम (Jagannath temple history in hindi)
कलिंग राजा अनंतवर्मन चोडगंग देव ने वर्तमान मंदिर का निर्माण कार्य आरम्भ कराया था जो हाल ही में गंगवंश के ताम्र पत्रों से ज्ञात हुआ है। इन्ही के शासन काल ( 1078 - 1148 ) में मंदिर के जगमोहन और विमान भाग बने। बाद में ओड़िया शासक अनंग भीम देव ने सन 1197 में मंदिर को वर्तमान रूप दिया।
सन 1557 तक मंदिर में पूजा होती रही, इसी वर्ष अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओड़िशा पर हमला किया और मंदिर पर हमला करके पूजा बंद करा दी और मंदिर ध्वंस किया। विग्रहों को ध्वंस से बचाने के लिए गुप्त तरीके से चिलिका झील के एक द्वीप पर रखवा दिया गया। बाद में जब खुर्दा में रामचंद्र देव ने स्वतंत्र राज्य स्थापित किया तब मंदिर और मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुयी।
मंदिर उद्गम की परंपरागत कथाएं (Jagannath temple history in hindi)
अगर परंपरागत कथाओं की बात करें तो राजा इंद्रधुम्न को सपने में एक मूर्ति दिखाई दी थी। यह भगवान जगन्नाथ की वही मूल मूर्ति थी जो अगरु के पेड़ के नीचे मिली थी और इंद्रनील या नीलमणि से बनी थी। मूर्ति इतनी चकाचौंध करती थी कि धर्म ने भी इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा था। अपने स्वप्न के बाद राजा इन्द्रद्युम्न ने तपस्या की तब भगवान विष्णु ने उसे समुद्र तट पर लकड़ी का लट्ठा मिलने की बात कही और उसी से मूर्ति बनवाने को कहा। राजा ने वैसा ही किया जैसा भगवान विष्णु ने कहा था लेकिन जब बात आयी लकड़ी से मूर्ति बनाने की तो कोई भी ये काम नहीं कर पाया तब देव विश्वकर्मा जी एक वृद्ध के रूप में आये और शर्त रखी के एक महीने में वो स्वयं मूर्ति बनाएंगे पर तब तक कोई भी कमरे के अंदर नहीं आएगा न अंदर देखेगा। लेकिन जब एक महीना गुज़र गया और कुछ दिन तक अंदर से किसी भी प्रकार की आवाज़ आनी बंद हो गयी तब वह शर्त को तोड़कर अंदर चला गया और तब तक तीन मूर्तियां आधी ही बनी थीं। मूर्तियों के हाथ पैर आदि बनना शेष था। फिर राजा ने ये सब देववश हुआ जानकर वैसी ही मूर्तियों की स्थापना करवा दी।
बात करें अगर चारण परम्परा की करें तो अलग ही बात सामने आती है। उनके अनुसार भगवान श्री कृष्ण (द्वारकाधीश) का अधजला शव यहाँ आया था। और शव के साथ जो दारू की लकड़ी का लट्ठा आया था उसी की पेटी बनवाकर धरती माता को समर्पित कर दिया गया।
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